Thursday 24 February 2011

कोशिशें

जाने क्यूँ कोशिशें कम पड़ जाती हैं
पल भर की मुस्कराहट, और फिर आखें नम पड़ जाती हैं

लोरिओं की आदत थी
तो अब खुद ही गुनगुना लेता हूँ
सालों पुराने वो झूठे अफ़साने
चुपके से, खुद ही बुदबुदा लेता हूँ

कभी कभी जब ये पैर सुन्न पड़ जाते हैं,
तो कोई उन्ग्लिओं को नहीं खींचता,
अब सर रखने को वो गोद नहीं मिलती
कुच्छ दूर यूंही लडखड़ा लेता हूँ

फूक फूक कर हर कौर
लाड से अब कोई नहीं खिलाता,
'चैन से खा तो ले'
कहकर मीठी डांट नहीं पिलाता

सिरहाने मेरे, वो पैसे
अब नहीं छिपाती,
मेरी छोटी ज़रूरतों के लिए
दूसरों से लड़ नहीं जाती

फासलों को तये करने,
क्यूँ ख्यालों के पुल बना लेता हूँ
आसमान की चाहत में उछलकर हर बार
क्यूँ ज़मीन पे बिखर जाता हूँ

खोखले साहारों से अब तो बस
कराहने की आहट सी आती है

क्यूँ हर बार कोशिशें कम पड़ जाती हैं
पल भर की मुस्कराहट, और फिर आखें नम पड़ जाती हैं