Friday 2 July 2010

आगाह करता गर कोई

आगाह करता गर कोई
के ऐसी जर्जर भूमि है,
नहीं बोता मैं बीज कभी...

नहीं बोता मैं बीज कभी
कह देता मुझसे गर कोई
के नियति याहां पर रोई है

व्यथा की है दुर्गन्ध यहाँ पर,
समृद्धि अब तक सोयी है

आगाह करता गर कोई
करता मैं कुछ और व्यापार,
मन में कोई मंशा होती...
ललक से ख़ुशी से रहता
नाता, कोई और विकार

ना रोता मैं वीरान राहों पर
चुभती विषमता की धार,
रहता मैं कुंठित इक बुत सा
अचरज करता ये संसार


आगाह करता गर कोई...

विपदा मुझ पर ना आती
याद ना करता जग मेरा शूर,
घायल मैं यूँ पडा ना रहता
राह तकती, ममता कहीं दूर
आचल -के - प्रेम पर, लहू ना होता
ना कांपते होंठ थर थर
मेरी चिता तो तब भी जलती
राख में ना रहते मेरे आखर

3 comments:

Amit S said...

Just loved it!!!

SCC said...
This comment has been removed by the author.
SCC said...

Shukriya janaab!
Dard to tab hota hai jab log waah waah karte hain ;)